
जो काम समय की सरकारों को और मानव अधिकार संगठनों को करना चाहिए, सरकारी मानव अधिकार आयोग को जहां ध्यान देना चाहिए वे तो अपना कर्तव्य लगभग भूल गए, पर भारत की न्याय पालिका इस ओर ध्यान दे रही है, यह सुखद प्रसंग है। अभी अभी उत्तराखंड के हाई कोर्ट द्वारा एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पुलिस कर्मचारियों को बड़ी राहत देते हुए उनकी रोजाना आठ घंटे ड्यूटी निर्धारित करने और वर्ष में 45 दिन का अतिरिक्त वेतन देने का महत्वपूर्ण आदेश पारित किया गया है। उत्तराखंड सरकार को हर तीन महीने में एक बार पुलिसकर्मियों का चेकअप कराना होगा। इसके अतिरिक्त आवासी स्थिति में सुधार के लिए हाउसिंग स्कीम बनाने, ड्यूटी के दौरान जख्मी या मृत्यु होने पर परिजनों को मुआवजा देने जैसे महत्वपूर्ण आदेश दिए गए। इसके साथ ही पुलिस कर्मियों की मनोचिकित्सा के लिए भी डॉक्टर नियुक्त करने का आदेश दिया है। इस निर्णय संबंधी इसलिए लिखा जा रहा है, क्यों कि इसी सप्ताह का निर्णय है। सुप्रीम कोर्ट जनहित में बहुत से आदेश और निर्देश पिछले कुछ वर्षों से दे रही है। चिंता की बात तो यह उनका पालन लगभग नहीं हो रहा है। जिसके लिए राज्य सरकारें जिम्मेवार हैं। लगभग एक वर्ष पहले भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग पर शराब के ठेके बंद करने का आदेश दिया गया। न्यायालय ने यह माना कि अधिकतर सडक़ दुर्घटनाओं और उसके कारण होने वाली मौतें शराब के कारण ही होती हैं। सरकारों ने ऐसा रास्ता निकाला कि महानगरों के अंदर से राष्ट्रीय राज मार्ग को नगर निगम, नगर पालिका का हिस्सा घोषित कर दिया, ठेके चलते रहे। इसके साथ ही शोर के प्रदूषण से बचाने के लिए उच्च न्यायालय ने ही यह जनहितकारी आदेश दिया था कि रात को 10 बजे के बाद लाउडस्पीकर न बजाएं। सब देखते हैं, सब सुनते हैं। भरे बाजार, सरेराह, पूरी-पूरी रात सार्वजनिक रास्तों को रोक कर लाउडस्पीकर चलते हैं। अति तो यह है कि कार्यक्रम से सैंकड़ों गज दूर तक आवाज पहुंचे, इसका प्रबंध किया जाता है। विडंबना यह भी है कि इन कार्यक्रमों में वही व्यक्ति मुख्य अतिथि होते हैं। जिसका दायित्व इस कानून का पालन करना है। इन कार्यक्रम के प्रबंध के लिए भी पुलिस को लगाया जाता है। क्यों कि सरकार या सरकारी वहां भाग लेने के लिए आ रहे हैं।
इसी सप्ताह भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जेलों में बढ़ती भीड़ की स्थिति पर गहरी चिंता जाहिर की है। वैसे तो जेलों का प्रबंध, कैदियोंं की देखभाल राज्य सरकारों का विषय है, पर जेलों में बढ़ रही भीड़ और कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार से हमारा सुप्रीम कोर्ट चिंतित है। न्यायालय ने यह कहा था कि कैदियों के भी मानव अधिकार हैं। जेलों में उन्हें जानवरों की तरह नहीं रखा जा सकता। भारत की 1382 जेलों में अमानवीय स्थिति है। क्षमता से कहीं-कहीं 150 प्रतिशत से ज्यादा कैदी रखे हैं। इसी कारण जेलों का वातावरण मनुष्य के रहने के योग्य नहीं। जस्टिन लोकुर एवं न्याय मूर्ति गुप्ता ने कहा कि न्याय मित्र के नोट से ऐसा लगता है कारागार अधिकारी जेलों में बढ़ती भीड़ की समस्या को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। कई जेल तो ऐसी है यहां कैदियों की भीड़ कारागार की कुल क्षमता से 100 प्रतिशत अधिक हैं। कहीं तो 150 प्रतिशत से भी ज्यादा कैदी हैं। न्यायाधीश ने यह भी कहा हमारे विचार से प्रत्येक उच्च न्यायालय को स्टेट लीगल सर्विसेज अथॉरिटी की सहायता से इस चुनौती से निपटना चाहिए, ताकि जेलों में भीड़भाड़ की समस्या से कुछ निजात मिल सके। क्यों कि यह मानव अधिकार हनन से जुड़ा मुद्दा है।
जो भी जागरूक नागरिक है, विधायक या सांसद हैं, राज्य के मंत्री हैं सभी जानते हैं कि हमारी जेलों मे क्या हो रहा है। जो बीमारियां और बुराइयां पंजाब की जेल में हैं वही सब दूसरे राज्यों में ही होंगी ऐसा अनुमान किया जाता है। पंजाब सरकार ने पिछले दिनों अमृतसर की पुरानी जेल की जमीन ऊंचे भाव में बेचने के लिए अमृतसर में नई जमीन बनाई है। यह जेल बनाने के लिए बसा-बसाया लोगों की सेवा करता करोड़ों की लागत से बना सरकारी अस्पताल भी तुड़वा दिया, पर जेल बनाने समय यह ध्यान नहीं रखा कि चार हजार कैदियों को रखने के लिए 2200 बंदियों के रहने योग्य जेल क्यों बनाई। आज भी वहां 3600 से ज्यादा कैदी और विचाराधीन कैदी हैं। जेलों को मॉडल बनाने के लिए भी काफी पैसा खर्च किया गया। कौन नहीं जानता कि कपूरथला और फरीदकोट जैसी मॉर्डन जेलों में बहुत से कैदियों ने मानसिक अवसाद, प्रताडऩा अथवा अमानवीय व्यवहार के कारण आत्महत्या कर ली। जेलों में स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं के लिए भी नाममात्र का ही प्रबंध है। उदाहरण के लिए अमृतसर की ही जेल में चार हजार से अधिक बंदियों के लिए केवल दो डाक्टर नियुक्त किए जाते हैं। वे भी पंजाब स्वास्थ्य सेवा से उधार लेने का प्रचलन है। 2007 से पहले जेलों में रात्रि के समय एक भी स्वास्थ्य सेवक नहीं रहता था। वहां एक फार्मोसिस्ट की सेवा देकर ऊंट के मुंह में जीरा डालने का प्रयास किया गया, पर पंजाब सरकार से बार-बार आग्रह किया कि जेल सेवाओं के डाक्टर अलग से भर्ती किए जाएं। और उनकी 24 घंटे जेलों में नियुक्ति रहे। वैसे भी जेलों के अधिकारियों का दोष कम और सरकार का ज्यादा रहता है, पर जो जेल अधिकारी सिफारिशी कोटे से नियुक्त होते हैं वे बंदियों की चिंता कम और अपने आकाओं के आदेश निर्देश पूरा करने में ज्यादा कुशल रहते हैं। एक और कटु सत्य यह है कि जो व्यक्ति आम जीवन में गरीब और अति गरीब रहता है उसकी जेल में दुर्गति सबसे ज्यादा होती है। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि गर्मियों में भी खाना बनाने के लिए लगातार उन्हीं कैदियों की ड्युटी लगाई जाती है जिनकी चिंता करने वाला कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं। जेल में सभी ताकतवर कैदी मोबाइल का प्रयोग करते हैं। नशे उनको सहज प्राप्त हैं। जानकारी तो यह भी है कि कुछ बड़े अपराधी जेल के अंदर बैठकर नशे का धंधा ज्यादा सुरक्षित रहकर चला लेते हैं। यह ठीक है कि नियमानुसार जिलों के सत्र न्यायाधीश जेलों का निरीक्षण करने भी जाते हैं। पर मगर मच्छर के मुंह के आगे खड़े होकर अंदर की स्थिति और दुव्र्यवहार की कहानियां कौन सा कैदी सुना सकता है। विश्वास कोई करे या न करे। जेल के अंदर कुछ बंदियों की पिटाई भी हो जाती है या योजना से करवाई जाती है।
कुछ समय पहले न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया था कि जो विचाराधीन कैदी वर्षों से जेल में बंद हैं अभी आरोपी हैं, अपराधी नहीं उन्हें क्यों नहीं जमानत पर छोड़ा जाता। निर्देश तो यह भी हैं कि किसी आरोपी को अपराध सिद्ध हो जाने के बाद जितनी सजा मिलनी है अगर वह उससे ज्यादा विचाराधीन कैदी के रूप मे भोग चुका है तो उसे छोड़ देना चाहिए, पर परवाह किसे है अदालत के आदेशों की।
जेलों में 33 फीसदी कर्मचारियों के स्थान रिक्त हैं। सुपरवाइजिंग अफसरों की 36 फीसदी रिक्तयां नहीं भरी गईं। देश की सबसे बड़ी जेल तिहाड़ जेल में भी कर्मचारियों की संख्या बहुत छोड़ी हैं। यही कारण है कि कभी कैदी फरार होते हैं। कभी आपस में लड़ते हैं और मरते हैं। देखना यह है कि न्यायालय अपने इस सद्भावनापूर्ण आदेश-निर्देश को कैसे लागू करवा पाएगा। क्या राज्य सरकारों की सोई संवेदना जागा पाएगी?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जेलों में बढ़ती भीड़ की स्थिति पर गहरी चिंता जाहिर की है। वैसे तो जेलों का प्रबंध, कैदियों की देखभाल राज्य सरकारों का विषय है, पर जेलों में बढ़ रही भीड़ और कैदियों के साथ आमनवीय व्यवहार से हमारा सुप्रीम कोर्ट चिंतित है। न्यायालय ने यह कहा था कि कैदियों के भी मानव अधिकार हैं। जेलों में उन्हें जानवरों की तरह नहीं रखा जा सकता।