
मोदी सरकार और अमितशाह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दलों को अप्रासंगिक सिद्ध करने में लगी है और हाल के कुछ उपचुनावों में लगे झटकों को छोड़ दें, तो देश के अलग-अलग हिस्सों में लगभग सभी स्तरों के चुनावों में उसे सफलता मिलती है। आज देश में न सिर्फ एक दल के वर्चस्व का झंडा लहरा रहा है, बल्कि देश के सभी राजनीतिक दल अस्तित्व बचाने के संकट से भी जूझते दिख रहे हैं।
विपक्ष का इस तरह कमजोर होते जाना लोकतांत्रिक व्यवस्था की सेहत के लिए अच्छा नहीं है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नई सरकार और नई सत्ताधारी पार्टी, सपनों और आशाओं के सहारे नई राजनीति की झलक दिखाकर अच्छे नतीजों का यकीन दिलाने में सफल रही है। सवाल उठता है, मजबूत विपक्ष का अर्थ क्या है। विधानसभाओं और संसद में संख्या बल की दृष्टि से विपक्ष का बहुत कमजोर होना भी अच्छी स्थिति नहीं है। जिस तरह संकल्पों की सिद्धि के लिए एक मजबूत सरकार की आवश्यकता होती है, उसी तरह प्रचंड बहुमत के नशे में किसी सरकार को सर्वसत्तावादी बनने से रोकने के लिए एक मजबूत विपक्ष की जनतंत्र की सफलता की एक शर्त है। ऐसा न होने पर सत्तारूढ़ पक्ष को मनमानी करने का अवसर मिल जाता है और वह विवेकहीन निर्णय भी ले सकता है। यह गंभीर चिंता का विषय नहीं, लेकिन इससे भी गंभीर वास्तविकता यह है कि विपक्ष भी वैकल्पिक व्यवस्था देने का यकीन दिलाने में नाकाम रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था, लेकिन यदि नारा विपक्ष मुक्त स्थिति की ओर ले जाता है, तो भले ही उससे भाजपा का भला हो जाए पर जनतंत्र का भला नहीं होगा। कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों को स्थित का आकलन नहीं करना चाहिए, बल्कि अपने आपको बदली हुई स्थितियों के अनुसार ढालना भी चाहिए। उन्हें सरकार की नाकामियों से लाभ उठाकर बताना चाहिए कि ऑटोमेशन के आगामी युग की चुनौतियों से निपटने के लिए उसके पास क्या कार्यक्रम है। यह उनके अस्तित्व का ही नहीं, सार्थक लोकतंत्र के अस्तित्व का भी सवाल है।