बीएनटी न्यूज, लातेहार (झारखंड) , 8 फरवरी| यदि कोई व्यक्ति दिव्यांगता को अपनी कमजोरी मानते हुए इसे किस्मत मानते हैं, तो उन्हें झारखंड के लातेहार के दीपक की कहानी जरूर जाननी चाहिए। जन्म के दो-तीन साल बाद ही दीपक के पैर की नसें सूख गईं। बेहद गरीब परिवार में जन्में दीपक के सामने चुनौतियों का पहाड़ था।
दीपक दिव्यांग जरूर हैं, लेकिन मजबूर नहीं। उन्होंने अपनी परेशानियों के लिए किस्मत और हालात को दोष नहीं दिया और कुछ कर दिखाने की ठानी। यही कारण है कि दीपक आज खुद के पैरों पर भले नहीं चल सकते हैं, परंतु कई लोगों को अपने ‘पैरों पर खड़े होने’ की राह बता रहे हैं।
दीपक ने बचपन से ही गरीबी देखी, यही कारण है कि उन्होंने कुछ करने का मन बना लिया। इस दौरान कभी पढ़ाई छोड़ने की स्थिति बनी तो उन्होंने आत्मविश्वास डगमगाने नहीं दिया और अपनी शिक्षा पूरी की। दीपक को अच्छी नौकरी मिल रही थी, परंतु उन्होंने अपने क्षेत्र, गांव के लिए कुछ करने का मन बना लिया और नौकरी ना कर अपने गांव बनबिरवा लौट आए।
दोनों पैर से लाचार होने के बाद भी दीपक अपनी कोशिश से आज के दौर में युवाओं के प्रेरणास्त्रोत बन गए हैं। सदर प्रखंड के आरागुंडी पंचायत के बनबिरवा गांव निवासी लखन भुइयां का बड़ा बेटा तीन साल की आयु में ही अपने दोनों पैर से लाचार हो गया, तो परिजनों को भविष्य की चिता सताने लगी। परंतु, जुनून के पक्के दीपक ने शिद्दत और समर्पण भाव से पढ़ाई की और वर्ष 2019 में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी), रायपुर से बीटेक किया।
बीटेक करने के बाद दीपक को प्राइवेट नौकरी के कई ऑफर मिले, लेकिन उन्होंने नौकरी को स्वीकार नहीं किया। वह अपने घर वापस लौटे और पशुपालन की दिशा में कदम बढ़ाया।
दीपक ने आईएएनएस के साथ बातचीत में कहा, “बीटेक करने के बाद नौकरी के कई ऑफर मिले। परंतु इच्छा नहीं हुई। गांव के मित्र, परिजन नौकरी करने की सलाह जरूर देते थे, परंतु मेरी इच्छा नहीं की। मैं घर लौट आया और पशुपालन में जुट गया।”
उन्होंने कहा, “अगर सरकारी नौकरी मिलेगी तब करूंगा वरना उससे अच्छा है कि यही करूं।” दीपक आज मछली, सुकर, बत्तख और मुर्गी पालन कर रहे हैं। दीपक का मानना है कि ²ढ़ इच्छाशक्ति और मंजिल पाने के समर्पित भाव से परिश्रम किया जाए, तो कोई भी काम मुश्किल नहीं होता।
दीपक ने आगे कहा, “व्यवसाय के सकारात्मक परिणाम मिले। प्रारंभ से ही मेरी इच्छा सरकारी नौकरी करने की रही थी। अगर नहीं मिली तब भी कोई गिलाशिकवा नहीं है।”
दीपक ने बताया कि वे तीन साल के थे तभी पैर से लाचार हो गए। तीन वर्ष के बाद ही किसी बीमारी के कारण पैर की नसें सूखती चली गईं।
उन्होंने कहा, “मैने छात्र जीवन में ही तय कर लिया था कि किसी के ऊपर बोझ नहीं बनूंगा। मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने आज तक जो भी निर्णय लिया है वह बेहतर रहा है।”
आरागुंडी पंचायत के पूर्व मुखिया गुजर उरांव भी दीपक के इस प्रयास के कायल हैं। मनोहर कहते हैं कि आज दीपक बनबिरवा के ही नहीं आसपास के गांवों के युवाओं के लिए भी प्रेरणास्रोत बन गए हैं। उन्होंने कहा कि पढ़ा-लिखा होने के कारण दीपक पशुपालन में भी आधुनिक और नए तरीके अपना रहे हैं।
इधर, लातेहार के प्रखंड विकास पदाधिकारी गणेश रजक ने कहा कि दीपक जैसे युवाओं की कोशिश निसंदेह सराहनीय है। पैर से लाचार होने के बाद भी दीपक सही मायने में अपने पैरों पर खड़े हैं। उन्होंने कहा कि दीपक को जो भी नियमसम्मत सरकारी सहायता की आवश्यकता होगी प्रशासन उन्हें उपलब्ध कराएगा।