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सुरकुट पर्वत पर है 51 शक्ति पीठों में पहला शक्तिपीठ, जहां गिरा था माता सती का सिर, देवराज इंद्र ने की थी तपस्या

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अपडेटेड 25 मई 2025, 10:10 AM IST
सुरकुट पर्वत पर है 51 शक्ति पीठों में पहला शक्तिपीठ, जहां गिरा था माता सती का सिर, देवराज इंद्र ने की थी तपस्या
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बीएनटी न्यूज़

टिहरी। उत्तराखंड के टिहरी जिले में सुरकुट पर्वत पर स्थित 51 शक्तिपीठों में सबसे पहला शक्तिपीठ है जहां माता सती का मस्तक कटकर गिरा था, जिसे सुरकंडा शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। यह शक्तिपीठ देवी दुर्गा के मां काली स्वरूप को समर्पित है। इतना ही नहीं, इस शक्तिपीठ के प्रांगण में कालभैरव के साथ ही भगवान शिव और हनुमानजी के भी मंदिर इस मंदिर परिसर में स्थापित हैं।

साथ ही मंदिर में गंगा जलधारा भी है, जो बेहद पवित्र मानी जाती है। इस शक्तिपीठ से बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री आदि धामों की पहाड़ियां भी दिखाई देती हैं। कहा जाता है कि स्वर्ग के राज इन्द्र देव ने भी इसी स्थान पर तपस्या की थी, जिससे इस पर्वत को ‘सुरकुट’ पर्वत कहा जाता है।

सुरकंडा देवी मंदिर समुद्र तल से 9,995 फीट की ऊंचाई पर स्थित पहला शक्ति पीठ है, जो 51 शक्तिपीठों में से एक है। यह उत्तराखंड के टिहरी जिले में स्थित है। यह मंदिर देवी दुर्गा को समर्पित है और यहां देवी काली की मूर्ति स्थापित है। मान्यता है कि देवी सती का सिर यहीं गिरा था, इसलिए पहले इसका नाम सिरकंडा था, जो कालांतर में सुरकंडा देवी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

सुरकंडा माता शक्ति पीठ के महंत महावीर लेखवार ने बताया कि ऐसी मान्यता है कि जब राजा दक्ष ने कनखल में यज्ञ का आयोजन किया, तो उसमें सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया। राजा दक्ष की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी सती ने शिव से यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी। शिव के मना करने पर भी सती यज्ञ में चली गईं। भगवान शिव के प्रति अपमानजनक बातें सुनकर सती यज्ञ कुंड में कूद गईं। ऐसा होने पर शिव ने क्रोधित होकर सती का शव लेकर हिमालय में चारों ओर घुमाया। शिव के क्रोध को शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शव को काट दिया। सती का सिर सुरकुट पर्वत पर गिरा, जो बाद में सिद्धपीठ सुरकंडा नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इस सिद्धपीठ से जुड़ी एक अन्य लोक मान्यता यह भी है कि इस मंदिर की स्थापना सदियों पहले आनंदू या आनंद सिंह जड़धारी ने की थी। उस समय पहाड़ के लोग देहरादून “माल” भारी सामान पीठ पर लादे आ रहे थे कि रास्ते में उन्हें एक असहाय वृद्धा मिली, उसने कहा कि मुझे भी अपने साथ ले चलो, लेकिन कोई राजी नहीं हुआ। आनंद सिंह जड़धारी दयालु प्रवृत्ति का था, उसने उस असहाय वृद्धा को अपनी पीठ पर लादे सामान के ऊपर बैठा दिया और हिम्मत के साथ आगे चलता गया। काफी दूर चलने के बाद जब वह कुछ देर विश्राम के लिए रुका, तो इतने में वृद्ध महिला अंतर्ध्यान हो गई। घर पहुंचने पर आनंद सिंह जड़धारी को उस वृद्ध महिला ने स्वप्न में देवी के रूप में दर्शन दिए और कहा कि तुम सबसे ऊंची धार में खुदाई करना, खुदाई से उस स्थान पर स्वयंभू दिव्य शिला प्रकट हुई, जिसे जड़धार गांव वासियों ने वहां पर मंदिर बनाकर स्थापित किया।

मां ने कहा जड़धारी वंश मेरा मैती कहलाएगा। तब से जड़धारी लोग देवी के मैती के रूप में मंदिर का प्रबंधन व सेवा करते आ रहे हैं। पुजाल्डी गांव के लेखवार जाति के ब्राह्मण मां के पुजारी हैं। वे आदिकाल से मां की पूजा-अर्चना का कार्य करते आ रहे हैं और मालकोट के लोग देवी के मामा कहलाते हैं। श्री सुरकंडा मंदिर इकलौता ऐसा सिद्धपीठ है, जहां गंगा दशहरा पर्व मनाया जाता है। वैसे तो श्रद्धालु वर्ष भर मां के दर्शन कर पुण्य फल प्राप्त करते हैं, लेकिन गंगा दशहरा और नवरात्रि के मौके पर मां के दर्शनों का विशेष महत्व बताया गया है। मां के दर्शन करने से पापों का नाश होता है और मनोकामना पूर्ण होती है।

श्रद्धालु दिव्य रस्तोगी ने बताया कि श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो, इसके लिए बुजुर्गों और दिव्यांग जनों के लिए ट्राली की व्यवस्था की गई है। मान्यता है कि यहां सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है।

परिवार के सुख, शांति और अच्छे स्वास्थ्य की कामना लेकर राजस्थान बीकानेर से आए श्रद्धालु इंद्र कुमार खत्री ने बताया कि यह सती माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है।

मुंबई से आए अक्षय चकीजा ने कहा कि इस मंदिर की काफी मान्यता है। वह दूसरी बार यहां आए हैं।

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