क्वाड के सहारे से चीन का विरोध करना व्यर्थ होगा : अमेरिका
बीजिंग, 25 मई (बीएनटी न्यूज़)| अमेरिका जब अपने महत्वपूर्ण प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ हमला कर रहा है, तब वह कभी अकेले युद्ध मैदान में नहीं जाता है। इसके विपरीत वह जरूर कुछ सहायकों को लेकर काम करेगा। और कभी-कभी अपने एजेंट को युद्ध के अग्रिम मोर्चे पर रख देता है, जबकि खुद वह केवल हथियार आपूर्तिकर्ता की भूमिका निभाता है। ऐसा करने का फायदा यह है कि अमेरिका न केवल अपने खुद को जोखिम में डालने से बच सकता है, बल्कि अपने साथी देशों को भी कमजोर कर सकता है, ताकि वे अमेरिका के बेड़ियों से और अधिक अविभाज्य हो सकें। आधुनिक इतिहास में कई सहयोगी, जिन्होंने अमेरिका के साथ-साथ काम किया है, अमेरिका के जाल में मजबूती से जकड़े हुए हैं।
उधर, अमेरिकी सरकार की धारणा के अनुसार, चीन भूतपूर्व सोवियत संघ के जैसा एक शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी बन गया है। चीन को दबाने के लिए हर संभव प्रयास करने की अमेरिका के दोनों पार्टियों की रणनीतिक सहमति बन गई है। हालांकि, चीन का मुकाबला करने के लिए अमेरिका को न केवल अपनी पूरी ताकत लगाने की जरूरत है, बल्कि उसके पास उपयुक्त मददगारों की भी कमी है।
भारत, अपनी विशाल जनसंख्या, उत्कृष्ट भौगोलिक स्थिति और पर्याप्त प्रतिभा पूल के साथ, अमेरिका को आकर्षित करने का लक्ष्य बन गया है। कुछ अमेरिकी राजनेताओं का मानना है कि अमेरिका और भारत की राजनीति, संस्कृति और भाषा में समानताएं हैं। भारत, अमेरिका का चीन से लड़ने के लिए सबसे अच्छा भू-राजनीतिक भागीदार है। जबकि भारत के यहां भी कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अमेरिका की सहायता तथा चीन-अमेरिका टकराव के माध्यम से अपने सामरिक हितों को साकार करने के शौकीन हैं।
हालांकि, मामले की प्रगति पूरी तरह से अमेरिका की अपेक्षाओं का पालन नहीं करती। सच्चे सहयोगी को हमेशा रणनीति और हितों के उच्च स्तर के संरेखण पर आधारित होना चाहिए। भारत, जिसे कभी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद द्वारा क्रूरता से प्रताड़ित किया गया था, अपने खुद के ऊंचे लक्ष्य हैं।
आजादी के बाद भारत ने लंबे समय तक गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई। भारत को किसी दूसरे देश के रथ से बांधने की संभावना नहीं है और वह अमेरिका के मोहरे की तरह काम नहीं कर सकेगा। अमेरिका द्वारा प्रस्तावित तथाकथित ‘इंडो-पैसिफिक रणनीति’ में भारत को सबसे महत्वपूर्ण कुंजी के रूप में माना जाता है।
अमेरिका का उद्देश्य चीन के व्यापार को प्रतिबंधित करने में भारत की भौगोलिक स्थिति का उपयोग करना है और अमेरिका ने इसी उद्देश्य को साकार करने के लिए ‘क्वाड’ तंत्र को भी डिजाइन किया। हालांकि, चीन का दुश्मन होने के नाते अनिवार्य रूप से इसी कीमत का भुगतान करना होगा। ‘क्वाड’ में हिस्सा लेने के लिए इसका क्या अर्थ है, इसे अन्य देश गणना करना नहीं भूलेंगे। इसलिए, ‘क्वाड’ अभी भी केवल एक शब्द है जो महज कागज पर मौजूद है। कुछ सैन्य अभ्यासों को छोड़कर, इसने पर्याप्त अर्थों में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया।
अपने स्वयं के हितों के विचार के अलावा, भारत अन्य विशिष्ट परिस्थितियों में अमेरिका का रणनीतिक सहयोगी बनने के लिए उपयुक्त नहीं है। न्यू कोरोना वायरस महामारी से चीन की आपूर्ति पर भारतीय अर्थव्यवस्था की घनिष्ठ निर्भरता प्रदर्शित है।
पिछले 30 वर्षों में, चीन कई रणनीतिक उद्योगों में एक थोक कमोडिटी ओईएम से वैश्विक बाजार के नेता के रूप में विकसित हुआ है। चीन के साथ भारत का व्यापार फार्मास्युटिकल उद्योग, आईटी सेवा उद्योग से लेकर कच्चे माल की आपूर्ति और बाजार तक अविभाज्य है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2020 में कोई अन्य देश के बजाय चीन ही था जो भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बन गया। उधर हथियारों की बिक्री को छोड़कर भारत को अमेरिका का निर्यात बेहद सीमित रहा। अमेरिका आसानी से उच्च प्रौद्योगिकी के मामले में भारत के लिए दरवाजा नहीं खोलेगा, और केवल चीन ही भारत को प्रौद्योगिकी के सभी पहलुओं, कच्चे माल और आपूर्ति श्रृंखला के विकास के क्षेत्रों में पर्याप्त आयात और निर्यात गारंटी प्रदान करने की क्षमता रखता है।
अमेरिका अक्सर लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में भारत के साथ अपनी एकता पर जोर देता रहता है। लेकिन वास्तव में अमेरिका और भारत के बीच बौद्धिक संपदा संरक्षण, कराधान, पर्यवेक्षण, डेटा प्रबंधन और नागरिक गोपनीयता जैसे नीतिगत क्षेत्रों में तीव्र अंतर हैं। उदाहरण के लिए भारत हमेशा स्वतंत्र नीतियों का पालन करता रहा है और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा प्रचारित ‘आत्मनिर्भरता’ अभियान का उद्देश्य विदेशों पर भारत की निर्भरता को कम करना है।
जब अमेरिका और भारत के बीच उक्त क्षेत्रों में बातचीत होती है, तब तो तथाकथित सामान्य मूल्य कभी उपयोगी वजन नहीं बन पाए हैं। भारत में गुटनिरपेक्षता की एक लंबी परंपरा रही है और भारत किसी के लिए रणनीतिक हथियार नहीं बनना चाहता। सीमा विवाद के बावजूद, चीन और भारत ने तंत्र की एक श्रृंखला के माध्यम से संघर्ष को युद्ध में फैलने से रोका है। क्योंकि दोनों देश जानते हैं कि अगर चीन और भारत के बीच सही संबंध बनाये रखते हैं, तब दोनों देशों की विशाल आर्थिक क्षमता पूरी तरह से साकार हो जाएगी। यदि चीन के विनिर्माण उद्योग को भारत के आईटी और अन्य औद्योगिक क्षमता के साथ जोड़ दिया जाए, तो एशियाई बाजार में अमेरिका का कोई भी स्थान नहीं रह सकेगा।
महामारी के निरंतर प्रसार के चलते अमेरिका और भारत के आपसी विश्वास में दरार आती दिख रही है। पश्चमी मीडिया ने अब भारत के विरुद्ध महामारी से अनुचित तरीके से निपटने का आरोप लगाना श्रुू किया है। अमेरिका के ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ आदि ने भी महामारी की दूसरी लहर के कारणों पर मोदी सरकार की बेरहमी से आलोचना की है।
वास्तव में, वर्तमान महामारी से निपटाने के लिए कोई मिसाल नहीं है, और किसी भी सरकार के लिए सभी स्थितियों की भविष्यवाणी करना असंभव है। मानव समुदाय को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग मजबूत करना चाहिए, ताकि महामारी को जल्द से जल्द नियंत्रित किया जा सके और आर्थिक सुधार के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।
उधर अमेरिका, जिसने खुद महामारी का प्रभावी ढंग से विरोध नहीं कर सका, ने भारत पर बेवजह आरोप लगाया। इससे भारतीय समाज में नाराजगी पैदा हुई है। और इसमें लोग यह भी देख पाए हैं कि अमेरिका की भारत के सहारे चीन का विरोध करने की नीति व्यर्थ रही है। और तथाकथित ‘इंडो-पैसिफिक रणनीति’ का उपयोगितावादी उद्देश्य भी पूरी दुनिया को जागरूक किया गया है।
जब कोई संकट आए, तब इसकी परीक्षा हो सकती है कि कौन सच्चा मित्र है। अमेरिका ने यह विचार किया कि भारत चीन का विरोध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हालांकि, संकट से निपटने में पश्चिमी देशों द्वारा दिखाई गई कमजोरी से यह दिखने लगा है कि वे चीन का विरोध करने के लिए एक शिविर स्थापित करने की कोशिश बिल्कुल व्यर्थ और हास्यास्पद है। इसके बाद अमेरिका को अपनी भारत नीति को समायोजित करना होगा।
‘इंडो-पैसिफिक रणनीति’ और ‘क्वाड’, जो केवल नाम में मौजूद हैं, को छोड़कर औद्योगिक श्रृंखला हस्तांतरण की योजनाओं में भी बदलाव होगा। चाहे अमेरिका या अन्य देश हो, यह नैतिक मूल्य नहीं बल्कि वास्तविक हित हैं जो विदेश नीतियों को निर्धारित करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय औद्योगिक श्रृंखला में अमेरिका और भारत के अलग अलग स्थितियों व अंतर से यह निर्धारित है कि उनके वास्तविक सामान्य हित और रणनीतियां नहीं होंगी। और ‘क्वाड’ के माध्यम से चीन के विकास को रोकने के प्रयास भी जरूर विफल रहेंगे।