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डाक्टरी पेशे में अधेरगर्दी….

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अपडेटेड 06 फ़रवरी 2020, 6:59 AM IST
डाक्टरी पेशे में अधेरगर्दी….
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वैसे तो हम हर रोज अमानवीय खबरें पढ़ते और सुनते रहते हैं। समाचार पत्रों के पन्ने भी ऐसी खबरों से भरे रहते हैं। मानवीय संवेदनाओं का क्षीण होना किसी भी देश और समाज के लिए घातक होता है। दुर्भाग्य से ऐसा भारत में हो रहा है। हर चीज में मिलावट है, दूध में मिलावट, ब्रांडेड कंपनियों के उत्पादों में गुणवत्ता की कमी है। नकली दवाईयों का समानांतर व्यापार चल रहा है और सरकार द्वारा संचालित स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत बहुत खराब है। एक तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तर्ज पर हैल्थ केयर योजना लागू कर चुके हैं। दूसरी तरफ निजी अस्पतालों की लूट का धंधा बदस्तूर जारी है। केंद्र और राज्य सरकारें अस्पतालों को कई तरह की सहायता देती हैं। दिल्ली में तो प्राइवेट अस्पतालों को सस्ते में सरकारी जमीनें मिली हुई है। इसके अलावा निजी अस्पतालों को सरकार कई तरह की सब्सिडी देती है। सरकारी नियमों के मुताबिक इन निजी अस्पतालों को गरीबों का मुफ्त इलाज करना है, लेकिन किसी गरीब की क्या हिम्मत जो इनसे अपना इलाज करवा ले। अस्पतालों ने कोर्ट में फ्री की परिभाषा को ही चुनौती दे रखी है। उनका कहना है कि सिर्फ डाक्टरोंं की फीस और बैड फ्रीस मिलेगा।

आखिर लूट की कोई हद भी होती है, लेकिन इन अस्पतालों की कोई हद नहीं है। प्राइवेट अस्पताल जिस तरह से  मामूली बीमारी के उपचार का बिल लाखों का थमा रहे हैं, लापरवाही बरतने पर इन मरीजों की जाने भी जा रही हैं, जीवित शिशुओं को मृत घोषित किया जा रहा है। ऐसे अस्तपालों में दाखिला होना आत्महत्या करने के समान है। क्या हमारे अस्पताल खासकर प्राइवेट अस्पताल खुद बीमार हो गए हैं। इन्हें चलाने वालों की मानसिकता ही क्रूर हो चुकी है। इनके इलाज की जरूरत है और सिर्फ नोटिस भेजने और अस्पताल के विरूद्ध कानूनी कार्रवाई से काम नहीं चलने वाला। अब महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इन बेदर्द अस्पतालों से निपटने का उपाय क्या? आखिर लोग जांए तो जाएं कहां? मरीज किस किस की चौखट पर जाकर रोएं? इन मरीजों की चीखें किसी को सुनाई नहीं दे रहीं।

1972 के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिका के कैनथ एको ने 1963 में सही चेतावनी दे दी थी कि स्वास्थ्य को बाजार के हवाले कर देना आम लोगों के लिए घातक साबित होगा। इस चेतावनी का दुनिया भर में बेशक असर हुआ हो, लेकिन भारत में स्वास्थ्य सेवा स्वास्थ्य उद्योग में तब्दील हो गई और रोजाना नए-नए गुल खिला रही है। इसकी बानगी बड़े वीभत्स, शर्मनाक और अमानवीय तरीके से देखने को मिल रहा है। प्राइवेट अस्पताल जिस तरह की लापरवाही ओर अमानवीय दिखा रहे हैं उसने पूरे देश को झिंझोड़ कर रखा दिया है। मरीज को खतरा कितना है या नहीं। यह तो उन्हें पता नहीं होता लेकिन अस्पताल प्रबंधन उन्हें आतंकित कर देता है और अनाप-शनाप टैस्ट लिखकर उन्हें लूटा जाता है। निजी अस्पतालों की लूट छिपाए नहीं छिप रही। उदाहरणों के आंकड़े बहुत भयावह हैं जिसमें प्राइवेट अस्पतालों पर लूट-खसूट करने का आरोप सच साबित होता है। मृत व्यक्ति को 7 दिन बेंटीलेटर पर रखना, जीवित को मृत बताना, जब तक बिल अदा नहीं किया जाता तब तक शव नहीं दिया जाना या फिर लाखों का भारी-भरकम कह देते हैं कि गरीब महंगे अस्पतालों मे जाते ही क्यों है। यह एक संवेदनशील मुद्दा है जो सच के करीब लगता है, लेकिन इसका सीधा संबंध सरकार से भी है जो स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति जबावदेही होती है। सरकारों ने कभी इन अस्पतालों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। तमाम बड़े नेताओं और अफसरों का यहां मुफ्त में इलाज होता है। ब्रॉडेड अस्पतालों की श्रृंखला खूब चल रही है, लेकिन निचुड़ता है आम आदमी। इन सब परिस्थितियों को ध्यान में रखकर दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने इलाज पर खर्च कम करने के लिए दो महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। केजरीवाल सरकार ने अस्पतालों के मनमाने बिलिंग सिस्टम पर ब्रेक लगाने के लिए प्राफिट कैपिंग पालिसी तैयार की। अब हर चीज का रेट तय होगा। इस नीति के तहत अस्पतालों को इस पर्चेज कास्ट से 30 फीसदी प्राफिट ही रखने के निर्देश दिए जाएंगे। अब तक अस्पताल हर दवा और उपकरणों के दो गुणा या ढाई गुणा वसूलने आए हैं।

देश में कुछ 19,817 सरकारी अस्पताल हैं जबकि निजी अस्पतालों की संख्या 80,671 हैं। देश में रजिस्टर्ड एलोपैथिक डाक्टरों की संख्या 10,22,859 में महज 1,13,328 डाक्टर ही सरकारी अस्पताल में हैं। यानी 90 फीसदी डाक्टर प्राइवेट सैक्टर में हैं। देश की 75 फीसदी आबादी इस लिहाज से प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने को मजबूर कर दी गई है। सरकार स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति महीने भर में सौ रुपया भी खर्चा नहीं करती। राज्य सरकारों को चाहिए कि दिल्ली सरकार की नीति को परख कर अपने-अपने राज्यों में मैडिकल में प्राफिट कैपिंग की सीमा बांधें।

क्यों है विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी

क्या आम आदमी के जीवन की कोई कीमत नहीं

जेब में पैसे नहीं तो इलाज नहीं

बेरोजगारी की चर्चा इन दिनों आम हैं। अक्सर यह कहा जाता है कि देश में जितने लोगों को डिग्री मिल रही है, उतने रोजगार के अवसर नहीं है। यह भी बताय जाता है कि इंजीनियर और डॉक्टर तब बेरोजगार हैं। यह बात काफी हद तक सही भी है, लेकिन पूरी तरह से सही नहीं है। बेशक, निचले स्तर पर रोजगार के अवसरों के यही हालात हैं, लेकिन जहां मामला विशेषज्ञता का आता है, तो निपुण लोगों का टोटा दिखाई देता है। चिकित्सा के पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में सीटों के खाली रह जाने के जो आकंड़े आए हैं, वे चौंकाने वाले हैं। खबर में बताया गया है कि इस साल कार्डियल सर्जरी के लिए पोस्ट ग्रेजुएशन की 104 सीटें खाली रह गई हैं, इसी तरह कार्डियोलॉजी की भी 55 सीटें खाली रह गई है। इसी तरह, बच्चों की सर्जरी के कोर्स की 87 सीटें खाली रह गईं। प्लास्टिक सर्जरी की 58 सीटों के लिए छात्र नहीं होंगे, न्यूरोलॉजी और न्यूरोसर्जरी की भी चार-चार दर्जन सीटें इस बार खाली रहेंगी। इन चिकित्सा विशेषज्ञताओं के लिए छात्र न मिलने के कारण दो हैं। एक तो यह कि इसके लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा में योग्य लोग पर्याप्त संख्या में नहीं मिले और दूसरा यह कि पोस्ट ग्रेजुएट के लिए जो योग्य छात्र मिले भी, उन्होंने इन कोर्सेज में जाना पसंद ही नहीं किया। चिकित्सा विशेषज्ञ मानते हैं कि आज के छात्र उन कोर्सेज को नहीं अपनाना चाहते, जिनमें विशेषज्ञता हासिल करने में लंबा समय लगता है, इसकी बजाय वे ऐसे क्षेत्र को चुनना चाहते हैं, जहां जल्द ही वे विशेषज्ञता हासिल करके पैसा कमाने लगें। एक डॉक्टर के अनुसार, यूरोलॉजी का विशेषज्ञ 35 साल की उम्र तक पहुँचते-पहुंचते ऑपरेशन करने लगता है, जबकि कार्डियल सर्जन को यह मौका 45साल की उम्र से पहले नहीं मिलता। जाहिर है कि दिल का मामला काफी नाजुक होता है और इसमें लंबे अनुभव का काफी महत्व है। 

यह खबर परेशान करने वाली इसलिए भी है कि आज जिन विशेषज्ञताओं के लिए हमें छात्र नहीं मिल रहे, कल उन क्षेत्रों से जुड़ी समस्याओं के इलाज के लिए हमें योग्य डॉक्टर नहीं मिलेंगे। हालांकि इस मामले में एक राय यह भी है कि समस्या छात्रों की कमी की नहीं हैं, समस्या विशेषज्ञता के कोर्स की व्यवस्था में है। कहा जाता है कि मेडिकल पोस्ट गे्रजुएट कोर्स के लिए देश में मेरिट की जो पद्धति है, उसे बदले बिना विशेषज्ञ डॉक्टरों की संख्या को बढ़ाना संभव न होगा। ऐसा नहीं है कि लोग विशेषज्ञता हासिल नहीं करना चाहते, पर व्यवस्था ऐसी बन गई, जो ऐसी चाह रखने वाले कई योग्य लोगों को भी रोक लेती है।

यह खबर हमें एक और कारण से चौंकाती है। न जाने कब से हम यह पढ़ते आए हैं कि मरीजों की संख्या और उपलब्ध डॉक्टरों को जो अनुमान होना चाहिए, उसमें भारत में बहुत असमानता है और इसे डॉक्टरों, अस्पतालों की संख्या बढ़ाकर ही दूर किया जा सकता है। ऐसे में, यह खबर डर पैदा करती है कि विशेषज्ञता हांसिल करने वाले डॉक्टरों की संख्या भविष्य में कम हो जाएगी। यह भी सच है कि जितने लोग मेडिकल विशेषज्ञता करते हैं, वे सभी यहां नहीं रहते। उनमेें से एक बड़ी संख्या विदेश चली जाती है। अक्सर कहा जाता है कि दुनिया के सभी बड़े अस्पतालों में भारतीय डॉक्टर होते हैं, जिनकी खासी प्रतिष्ठा भी होती है। जाहिर है, अगर हमें अपनी भावी पीढ़ी को एक स्वस्थ जीवन देना है, तो इस पूरी व्यवस्था को बदलना होगा।

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